हड़प्पा सभ्यता के एक पुरास्थल से प्राप्त एक पट्टिका पर महिषासुर का मर्दन करती हुई देवी का अंकन मिलता है, जिसे महिषासुरमर्दिनी की कहानी का प्रथम चित्रण माना जाता है – प्रोफेसर शुभम केवलिया
पब्लिक वार्ता,
प्रोफेसर शुभम केवलिया। Godess Worship In India: मातृपूजा भारतीय संस्कृति की एक अत्यंत प्राचीन परंपरा है, जिसकी जड़ें लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व की सरस्वती और सिंधु नदी की घाटियों में मिलती हैं। यहां से शुरू हुई मातृदेवी की आराधना भारतीय समाज में गहराई तक व्याप्त है, जो आज भी विभिन्न पर्वों में जीवंत दिखाई देती है। पुरातात्विक उत्खननों से प्राप्त सामग्री इस बात का प्रमाण देती है कि भारतीय सभ्यता का आरंभिक स्वरूप मातृदेवियों के पूजन पर आधारित था। विशेषकर हड़प्पा (Hadappa) और मोहनजोदड़ो (Mohanajodado) से मिली मातृदेवियों की मूर्तियां इस तथ्य को और भी स्पष्ट करती हैं कि भारतीय समाज ने देवी-पूजन को अपने जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बना रखा था।
प्राचीन सभ्यताओं में मातृदेवी की आराधना
पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार, सिंधु-सरस्वती सभ्यता से पकी मिट्टी से बनी मातृदेवी की मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। इन मूर्तियों में देवी के सौम्य और रौद्र दोनों रूपों को दर्शाया गया है। पाकिस्तान के बलूचिस्तान स्थित कुल्ली पुरास्थल से मातृदेवी के चंडी स्वरूप की मूर्तियां प्राप्त हुई हैं, जो देवी के शक्तिशाली और उग्र रूप की ओर इंगित करती हैं। बलूचिस्तान में स्थित हिंगलाज शक्तिपीठ, जो 52 शक्तिपीठों में से एक है, भी मातृदेवी की आराधना की प्राचीनता को दर्शाता है।
हड़प्पा सभ्यता के एक पुरास्थल से प्राप्त एक पट्टिका पर महिषासुर का मर्दन करती हुई देवी का अंकन मिलता है, जिसे महिषासुरमर्दिनी की कहानी का प्रथम चित्रण माना जाता है। बलूचिस्तान के नौशारो क्षेत्र से मातृदेवी की मूर्तियां मिली हैं, जिनके मस्तक पर सिंदूर के प्रमाण मिले हैं। यह भारतीय संस्कृति में विवाहित स्त्रियों द्वारा सिंदूर लगाने की परंपरा को पांच हजार वर्षों पूर्व तक ले जाता है।
मातृदेवियों के प्रतीक और अर्थ
भारतीय संस्कृति में मातृदेवियों का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। पुरातात्विक साक्ष्यों से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय समाज ने धरती को सृजनकर्ता के रूप में देखा और धरती को मां का स्वरूप दिया। हड़प्पा से प्राप्त एक पट्टिका पर एक स्त्री के गर्भ से एक पौधे के अंकुरण का चित्रण हुआ है, जो मातृदेवी के सृजनात्मक स्वरूप को दर्शाता है। इसी सभ्यता में सप्तमातृकाओं का भी महत्वपूर्ण स्थान रहा है। मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुद्रिका पर खड़ी सात मानव आकृतियों को कुछ विद्वान सप्तमातृकाओं का चित्रण मानते हैं, जो भारतीय देवी-पूजा के एक और पहलू को उजागर करती है।
मथुरा और वैदिक काल की देवी-पूजा
मातृदेवी की मूर्तिकला में आगे का विकास लगभग दो हजार वर्ष पूर्व मथुरा में देखा गया। मथुरा के उत्खननों से दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी और सप्तमातृकाओं जैसे देवी स्वरूपों की मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। मथुरा से प्राप्त देवी की मूर्तियों ने बाद में बनने वाली मातृदेवियों की मूर्तिकला की दिशा निर्धारित की। इन मूर्तियों के माध्यम से देवी-पूजा की परंपरा पुनः प्रारंभ हुई और यह भारतीय समाज का एक स्थायी हिस्सा बनी रही।
मातृपूजा: भारतीय संस्कृति की स्थायी परंपरा
मातृपूजा की परंपरा भारतीय जनमानस में गहराई से रची-बसी है। यह परंपरा केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि यह भारतीय समाज की आदिकाल से चली आ रही सामाजिक संरचना का भी प्रतीक है। भारतीय समाज में मातृदेवी को धरती, शक्ति और सृजन का प्रतीक माना गया है। यह भारतीय संस्कृति की सबसे प्राचीन परंपराओं में से एक है, जिसे आज भी नवरात्रि और अन्य धार्मिक पर्वों में पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ मनाया जाता है।
भारतीय संस्कृति की यह अनूठी परंपरा हमें यह समझने का अवसर देती है कि देवी-पूजा की जड़ें कितनी गहरी हैं और यह कैसे हजारों वर्षों तक अपने अस्तित्व को बनाए रखी हैं। भारतीय समाज के लिए मातृदेवी की पूजा न केवल धार्मिक बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व भी रखती है। यह परंपरा आज भी नवरात्रि, दुर्गापूजा और अन्य उत्सवों के माध्यम से जीवित और प्रासंगिक बनी हुई है।
(Disclaimer: यह लेख पुरातत्वविद व इतिहासकार प्रो. शुभम केवलिया द्वारा अद्यतन किया गया है। इस लेख में लेखक के अपने विचार और शोध है।)