रतलाम – पब्लिक वार्ता,
जयदीप गुर्जर। बसंत पंचमी आते ही रतलाम के जनम की गाथा का गान शुरू हो जाता है। इसी गाथा को राजनीति के आटे में गूंथने का काम भी जबरदस्त फल – फूल चुका है। यहां रतलाम यानी रतनपुरी का जन्मदिन दो – दो तरीको से अलग – अलग गुट मना रहा है। और दोनों में यह कांमीपीटीशन पिछले कुछ सालों से बढ़ता जा रहा है। मगर इन दोनों गुटों के आंख के अंधे लोगो को “रतलाम का बेरंग बसंत” नहीं दिखाई पड़ता है। 4 दिन का इनका नगर प्रेम बसंत पंचमी के बाद गोदड़े की घड़ी हो जाता है, ठीक वैसे ही जैसे ठंड जाते ही घर में रजाई गोदड़ी घड़ी हो जाती है और फिर ठंड में ही बाहर आती है। इस बार इन्होंने रतलाम स्थापना “गौरव दिवस” नाम दिया है। जबकी अब तक रतलाम का गौरव नहीं लौटा है। यहां “गौरव” नाम से ही काम चलाया जा रहा है। महिलाओं को मुफ्त की तलवार देकर इन्हें रतलाम के गौरव का अनुभव होगा ये अपने आप में अनोखी और विचारणीय बात है।
एक तरफ अपनी राजनीति नैय्या डूबने के बाद बुलबुले छोड़ रही जगत “सेठ” की सवारी है तो वहीं दूसरी तरफ एक ऐसी टीम है जो जग जाहिर “भैय्याजी” के हिंडोलों की मजबूत नैय्या पर सवार है। यह अच्छी बात है की आमजनता को लगता है दोनों में देशप्रेम के साथ नगर प्रेम की भावनाएं निहित है। लेकिन इसके उलट इनकी अंदरूनी मंशा तो कुछ और ही सुनाई व दिखाइ देती है।
उद्धार करोगे या उधार ही रखोगे?
इनसे इतने सालों में वाहनों के पेट्रोल फूंकने, पटाखे छोड़ने जैसे फिजूलखर्ची के काम ही हुए है। रही कहि कसर ये भगवान के आगे सिर फोड़ के पूरी कर लेते है। इनका राजनीतिक मजमा ऊपरी मन से रतनपुरी के रत्नेश्वर महादेव पर जाकर अगरबत्तियां लगाकर अपने आपको नगर प्रेमी साबित कर देता है। बरहाल ये अलग बात है की उन महादेव को उसके अलावा ये लोग पूछने परखने तक नहीं आते। वहां के दिल फरियाद भक्त और सेवादार ही वहां का जीर्णोद्धार से लेकर हर कार्यक्रम तक करते है। वे भी यही कहते है – कब तक ये महादेव की नगरी का उधार ही रखेंगे, क्या कभी उद्धार भी करेंगे? इनसे मंदिर छोड़ो राजा महाराजाओं की चिताए (छतरियां व स्मारक) तक नहीं सवारी जा रही है। इसके अलावा ये उस प्राचीन धरोहर के लिए इतने सालों में कुछ नहीं कर पाए जहां आज हर दूसरा व्यक्ति कौना ढूंढ कर मूत रहा है। महलवाड़ा या रणजीत विलास पैलेस आज भी अपनी वैभवता का यश गाता है और अपनी दुरदशा पर रोता – बिलखता है। इन राजनीति के अंधे बहरों से उसकी सुध नही ली जाएगी। केवल पेपरबाजी कर इन्हें रतलाम स्थापना दिवस मनाना है। और उसे गौरवशाली क्षण बताना है। आज और कल हम सब जानते है की सत्ता क्या कुछ नहीं कर सकती। मगर मजाल है राजमहल का उद्धार हो जाए। कैसे होगा? आत्मविश्वास और मनोबल भी तो यहां के जनप्रतिनिधियों का होना चाहिए। खेर इन सब में ये रतलाम मेरे बाप दादा की जागिरी नहीं है, यह कह कर में अपनी बात को विराम देता हूं। क्योंकि यहां की जनता को भगतसिंह तो चाहिए लेकिन बशर्ते वो पड़ोसी के घर पैदा हो!!!
जय रतलाम, जय हिंद, जय भारत!